लोगों की राय

आचार्य श्रीराम शर्मा >> सुनसान के सहचर

सुनसान के सहचर

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15534
आईएसबीएन :0

Like this Hindi book 0

सुनसान के सहचर

6

आलू का भालू

 

आज गंगोत्री यात्रियों का एक दल और भी साथ मिल गया। उस दल में सात आदमी थे-पाँच पुरुष, दो स्त्रियाँ। हमारा बोझा तो हमारे कन्धे पर था, पर उन सातों का बिस्तर एक पहाड़ी कुली लिए चल रहा था। कुली देहाती था, उसकी भाषा भी ठीक तरह समझ में नहीं आती थी। स्वभाव का भी अक्खड़ और झगड़ालू जैसा था। झाला चट्टी की ओर ऊपरी पठार पर जब हम लोग चल रहे थे, तो उँगली का इशारा करके उसने कुछ विचित्र डरावनी-सी मुद्रा के साथ कोई चीज दिखाई और अपनी भाषा में कुछ कहा। सब बात तो समझ में नहीं आई, पर दल के एक आदमी ने इतना ही समझा भालू-भालू, वह गौर से उस ओर देखने लगा। घना कुहरा उस समय पड़ रहा था, कोई चीज ठीक से दिखाई नहीं पड़ती थी, पर जिधर कुली ने इशारा किया था, उधर काले-काले कोई जानवर उसे घूमते नजर आये। 

जिस साथी ने कुली के मुँह से भालू-भालू सुना था और उसके इशारे की दिशा में काले-काले जानवर घूमते दीखे थे, वह बहुत डर गया। उसने पूरे विश्वास के साथ यह समझ लिया कि नीचे भालू-रीछ घूम रहे हैं। वह पीछे था, पैर दाब कर जल्दी-जल्दी आगे लपका कि वह भी हम सबके साथ मिल जाय, कुछ देर में वह हमारे साथ आ गया। होंठ सूख रहे थे और भय से काँप रहा था। उसने हम सबको रोका और नीचे काले जानवर दिखाते हुए बताया कि भालू घूम रहे हैं, अब यहाँ जान का खतरा है। 

डर तो हम सभी गये, पर यह न सूझ पड़ रहा था कि किया क्या जाये? जंगल काफी घना था-डरावना भी, उसमें रीछ के होने की बात असम्भव न थी। फिर हमने पहाड़ी रीछों की भयंकरता के बारे में भी कुछ बढ़ी-चढ़ी बातें परसों ही साथी यात्रियों से सुनी थीं, जो दो वर्ष पूर्व मानसरोवर गये थे। डर बढ़ रहा था, काले जानवर हमारी ओर आ रहे थे। घने कुहरे के कारण शक्ल तो साफ नहीं दीख रही थी, पर रंग के काले और कद में बिलकुल रीछ जैसे थे, फिर कुली ने इशारे से भालू होने की बात बता दी है, अब संदेह की बात नहीं। सोचा-कुली से ही पूछे कि अब क्या करना चाहिए, पीछे मुड़कर देखा तो कुली ही गायब था। कल्पना की दौड़ ने एक ही अनुमान लगाया कि वह जान का खतरा देखकर कहीं छिप गया है या किसी पेड़ पर चढ़ गया है। हम लोगों ने अपने भाग्य के साथ अपने को बिलकुल अकेला असहाय पाया। 

हम सब एक जगह बिलकुल नजदीक इकट्टे हो गये। दो-दो ने चारों दिशाओं की ओर मुँह कर लिए, लोहे की कील गड़ी हुई लाठियाँ जिन्हें लेकर चल रहे थे, बन्दूकों की भाँति सामने तान ली और तय कर लिया कि जिस पर रीछ हमला करे, वे उसके मुँह में कील गड़ी लाठी टॅस दें और साथ ही सब लोग उस पर हमला कर दें, कोई भागे नहीं, अन्त तक सब साथ रहें चाहे जिएँ, चाहे मरें। योजना के साथ सब लोग धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे, रीछ जो पहले हमारी ओर आते दिखाई दे रहे थे, नीचे की ओर उतरने लगे, हम लोगों ने चलने की रफ्तार काफी तेज कर दी, दूनी से अधिक। जितनी जल्दी हो सके, खतरे को पार कर लेने की ही सबकी इच्छा थी। ईश्वर का नाम सबकी जीभ पर था। मन में भय बुरी तरह समा रहा था। इस प्रकार एक-डेढ़ मील का रास्ता पार किया। 

कुहरा कुछ कम हुआ, आठ बज रहे थे। सूर्य का प्रकाश भी दीखने लगा। घनी वृक्षावली भी पीछे रह गई, भेड़-बकरी चराने वाले भी सामने दिखाई दिये। हम लोगों ने सन्तोष की साँस ली। अपने को खतरे से बाहर अनुभव किया और सुस्ताने के लिए बैठ गये। इतने में कुली भी पीछे से आ पहुँचा। हम लोगों को घबराया हुआ देखकर वह कारण पूछने लगा। साथियों ने कहा-तुम्हारे बताये हुए भालुओं से भगवान् ने जान बचा दी, पर तुमने अच्छा धोखा दिया, बजाय उपाय बताने के तुम खुद छिपे रहे। 

कुली सकपकाया, उसने समझा उन्हें कुछ भ्रम हो गया। हम लोगों ने उसके इशारे से भालू बताने की बात दुहराई तो वह सब बात समझ गया कि हम लोगों को क्या गलतफहमी हुई है। उसने कहा-"झेला गाँव का आलू मशहूर बहुत बड़ा-बड़ा पैदा होता है, ऐसी फसल इधर किसी गाँव में नहीं होती वही बात मैंने अँगुली के इशारे से बताई थी। झाला का आलू कहा था आपने उसे भालू समझा। वह काले जानवर तो यहाँ की काली गायें हैं, जो दिन भर इसी तरह चरती-फिरती हैं। कुहरे के कारण ही वे रीछ जैसी आपको दीखीं। यहाँ भालू कहाँ होते हैं, वे तो और ऊपर पाए जाते हैं, आप व्यर्थ ही डरे। मैं तो टट्टी करने के लिए छोटे झरने के पास बैठ गया था। साथ होता तो आपका भ्रम उसी समय दूर कर देता। 

हम लोग अपनी मूर्खता पर हँसे भी और शर्मिन्दा भी हुए। विशेषतया उस साथी को जिसने कुली की बात को गलत तरह समझा, खूब लताड़ा गया। भय मजाक में बदल गया। दिन भर उस बात की चर्चा रही। उस डर के समय में जिस-जिसने जो-जो कहा था और किया था उसे चर्चा का विषय बनाकर सारे दिन आपस की छींटाकशी-चुहलबाजी होती रही। सब एक दूसरे को अधिक डरा हुआ परेशान सिद्ध करने में रस लेते। मंजिल आसानी से कट गई। मनोरंजन का अच्छा विषय रहा। 

भालू की बात जो घण्टे भर पहले बिलकुल सत्य और जीवन-मरण की समस्या मालूम पड़ती रही, अन्त में एक और भ्रान्ति मात्र सिद्ध हुई। सोचता हूँ कि हमारे जीवन में ऐसी अनेकों भ्रांतियाँ घर किये हुए हैं और उनके कारण हम निरन्तर डरते रहते हैं, पर अन्तत: वे मानसिक दुर्बलता मात्र साबित होती हैं। हमारे ठाट-बाट, फैशन और आवास में कमी आ गई तो लोग हमें गरीब और मामूली समझेंगे, इस अपडर से अनेकों लोग अपने इतने खर्चे बढ़ाए रहते हैं, जिनको पूरा करना कठिन पड़ता है। लोग क्या कहेंगे यह बात चरित्र पतन के समय याद आवे तो ठीक भी है; पर यदि यह दिखावे में कमी के समय मन में आवे तो यही मानना पड़ेगा कि वह अपडर मात्र है, खर्चीला भी और व्यर्थ भी। सादगी से रहेंगे, तो गरीब समझे जायेंगे, कोई हमारी इज्जत न करेगा। यह भ्रम दुर्बल मस्तिष्कों में ही उत्पन्न होता है, जैसे कि हम लोगों को एक छोटी-सी नासमझी के कारण भालू का डर हुआ था। 

अनेकों चिन्ताएँ, परेशानियाँ, दुबिधाएँ, उत्तेजनाएँ, वासनाएँ तथा दुर्भावनाएँ आए दिन सामने खड़ी रहती हैं, लगता है यह संसार बड़ा दुष्ट और डरावना है। यहाँ की हर वस्तु भालू की तरह डरावनी है; पर जब आत्मज्ञान का प्रकाश होता है, अज्ञान का कुहरा फटता है, मानसिक दौर्बल्य घटता है, तो प्रतीत होता है कि जिसे हम भालू समझते थे, वह तो पहाड़ी गाय थी। जिन्हें शत्रु मानते हैं, वे तो हमारे अपने ही स्वरूप हैं। ईश्वर अंश मात्र हैं। ईश्वर हमारा प्रियपात्र है तो उसकी रचना भी मंगलमय होनी चाहिए। उसे जितने विकृत रूप में हम चित्रित करते हैं, उतना ही उससे डर लगता है। यह अशुद्ध चित्रण हमारी मानसिक भ्रान्ति है, वैसी ही जैसी कि कुली के शब्द आलू को भालू समझकर उत्पन्न कर ली गई थी। 

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. हमारा अज्ञात वास और तप साधना का उद्देश्य
  2. हिमालय में प्रवेश : सँकरी पगडण्डी
  3. चाँदी के पहाड़
  4. पीली मक्खियाँ
  5. ठण्डे पहाड़ के गर्म सोते
  6. आलू का भालू
  7. रोते पहाड़
  8. लदी हुई बकरी
  9. प्रकृति के रुद्राभिषेक
  10. मील का पत्थर
  11. अपने और पराये
  12. स्वल्प से सन्तोष
  13. गर्जन-तर्जन करती भेरों घाटी
  14. सीधे और टेढ़े पेड़
  15. पत्तीदार साग
  16. बादलों तक जा पहुँचे
  17. जंगली सेव
  18. सँभल कर चलने वाले खच्चर
  19. गोमुख के दर्शन
  20. तपोवन का मुख्य दर्शन
  21. सुनसान की झोपड़ी
  22. सुनसान के सहचर
  23. विश्व-समाज की सदस्यता
  24. लक्ष्य पूर्ति की प्रतीक्षा
  25. हमारी जीवन साधना के अन्तरंग पक्ष-पहलू
  26. हमारे दृश्य-जीवन की अदृश्य अनुभूतिया

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book